प्रकाशके अधिपति मित्रावरुणके सूक्त

 

पहला सूक्त

 

ऋ. 5.62

 

सत्य और अ'नंदके सहस्र-स्तंभ धामके अधपति

 

[ ऋषि उस शाश्वत तथा अपरिवर्तनीय सत्यकी स्तुति करता है जिसे परिवर्तनशील पदार्थोका सत्य आवृत किये है । वही दिव्य ज्ञानके आविर्भूत सूर्यकी यात्राका ध्येय है । वह है सभी सत् पदार्थों और उस परमदेवकी शाश्वत एकता जिसके कि सभी देवता विविध रूप है । उसीमें यज्ञद्वारा प्राप्त सत्ता और ज्ञान तथा शक्ति व परम आनंदकी संपूर्ण संपदा एकत्र होती है । वही है वरुणकी विस्तृत निर्मलताओं एवं मित्रके उज्ज्वल सामंजस्योकी बृहत् विशालता । वहाँ नित्य, स्थिर ज्ञानकी दिव्य ज्योतियोंके गोयूथ निवास करते हैं, क्योंकि वही सुखद क्षेत्र है जिसकी ओर वे यहाँ यात्रा कर रहे हैं । वैश्व गति और यात्राका प्रेरक हमारे अन्दर आन्तरिक प्रकाशकी उषाओंके द्वारा ऐसे ज्ञानको उडेलता है जो रश्मिरूपी गायोंका दूध है । वहीं अमर्त्य सत्ताकी धाराएँ अवतरित होती हैं जिसके बाद उन मित्र और वरुण अर्थात् प्रकाश और पवित्रताकी, सामंजस्य और अनन्तताकी एक ही अखंड और पूर्ण गतिधारा प्रवाहित होती है । यही है द्युलोककी वर्षा जिसे ये दोनो देवता भौतिक सत्ताके उसके फलोंमें और दिव्य सत्ताको उसके प्रकाशकी सामूहिक प्रभाओमें धारण करते हुए बरसाते हैं । इस प्रकार वे मनुष्यके अंदर दिव्य ज्ञानसे भरपूर शक्तिका और एक विशाल सत्ताका सर्जन करते हैं,  जिसकी वे रक्षा व संवर्धन करते हैं, और जो यज्ञके लिए बिछाया गया एक आसन होती है । इस सहस्रस्तंभयुक्त ज्ञान-शक्तिको वे अपने लिए एक धाम बनाते हैं और वहाँ शब्दके साक्षात्कारोंमें निवास करते हैं । यह अपनी आकृतिमें ज्योतिर्मय है और इसके जीवनके स्तंभ लौहशक्ति और स्थिरतासे युक्त हैं । वें उष:कालमें और ज्ञानसूर्यके उदयमें इसकी ओर आरोहण करते हैं और अपनी दिव्य दृष्टिके उस नेत्रसे अनंत और सांत सत्ताको एवं वस्तुओंकी अविभाज्य एकता और उनकी बहुविधताको निहारते हैं । यह हैं वह धाम जो परमके माधुर्य और हर्षोल्लास, अभेद्य

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शक्ति और आनदसे भरपूर और विशाल है और जिसे हम उनके पालक-पोषक रक्षणके द्वारा जीतना और अधिकृत करना चाहते है । ]

1

ऋतेन ऋतमपिहितं ध्रुव वां सूर्यस्य यत्र विमुचन्त्यश्वान् ।

दश शता सह तस्थुस्तदेकं देवानां श्रेष्ठं वपुषामपश्यम् ।।

 

(ऋतेन) सत्य1से (वां) तुम दोनोंका (ध्रुवम् ऋतं) बह ध्रुव-सत्य2 (अपिहितम्) ढका हुआ है (यत्र) जहाँ वे (सूर्यस्य) सूर्यके (अश्वान्) घोड़ोंको (विमुचन्ति) रवोल देते है । वहाँ (दता शता) दस सौ3-हजार रश्मियां-- (सह तस्थुः) एक साथ स्थिर रूपसे स्थित हैं । (तत् एकं) वह एक हुऐ । (वपुषाम् देवानाम्) देहधारी देवोंमें (श्रेष्ठं) सबसे महान् देव4के रूपमें (अपश्यम्) मैंने उसके दर्शन किये हैं ।

तत्सु वां मित्रात्ररुणा महित्वमीर्मा तस्थुषीरहभिर्दुदुह्रे ।

विश्वा: पिन्वथ: स्वसरस्य धेना अनु वामेक: पविरा ववर्त्त ।।

 

(मित्रावस्णा) हे मित्र और वरुण ! (वां) तुम दोनोंकी (तत् सु महित्वम्) यही पूर्ण विशालता है । (ईर्मा) गति का अधिपति अपनी (तस्थुपिः) स्थिर दीप्तिओंकी गौओंको (अहभि:) दिनोमें-. -प्रकाशं-कालमें (दुदुह्रे) दोहता है । (स्वसरस्य विश्वा: धेना:) आनंदमय भगवान्की संपूर्ण

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1. वस्तुओंका क्रियाशील वैश्व सत्य । वस्तुएं अपनी देशकालगत परिवर्तन-

   शीलता और विभाज्यतामे प्रसारित और व्यवस्थित हैं । उनका

   क्रियाशील जागतिक सत्य उस शाश्वत तथा अविकारी सत्यको आवृत

   किये है जिसका वह आविर्भाव है ।

2. शाश्वत सत्य दिव्य प्रकाश का लक्ष्य है जो हमारे अंदर उदित होता है

   और चमकते हुए ऊर्ध्य समुद्रसे होता हुआ ऊपरकी ओर ऊँचेसे ऊँचे

   द्यलोकोंमे यात्रा करता है ।

3. दिव्य ऐश्वर्यका संपूर्ण प्राचुर्य अपने ज्ञान, क्षक्ति और आनंदकी

   वृष्टिधाराओं सहित ।

4. एकमेव अर्यात् बह देव जो दिव्य सूर्य-रूपी अपने स्वरूपसे ढका हुआ है ।

   तुलना करो ईशोपनिषद्के इस वचनसे, ''हे सूर्य ! जो तेज तेरा अत्यन्त

   कल्याणकारी रूप हैं उसके दर्शन मुझे करने दो । वहाँ, वहाँ जो पुरुष है

   वही मैं हूँ''--''तेजो यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि । योऽसावसौ

   पुरुष: साऽहमस्मि ।"

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धाराओंको (वां) तुम दोनो (पिन्वथ:) बढ़ाते हो और (एक: पवि:) तुम्हारे रथका एक पहिया1 (अनु आ ववर्त्त) उनके रास्तेमें गति करता है ।

अधारयतं पृथिवीमुत द्यां मित्रराजाना वरुणा महोभि: ।

वर्धयतमोषधी: पिन्वतं गा अव वृष्टिं सृजतं जीरदानू ।।

 

(मित्रराजाना वरुणा) हे मित्रराजा और राजा वरुण (महोभि:) अपनी महानतासे तुम दोनों (पृथिवीम् उत द्याम्) पृथिवी और द्युलोकको (अधारय-तम्) धारण करते हो । तुम (ओषधी: वर्धयतम्) ओषधियों, पृथिवीकी वनस्पतियोंको बढ़ाते हो । (गा: पिन्वतम्) द्युलोकके चमकते गोयूथोको पुष्ट करते हों, (वृष्टिम् अव सृजतम्) इसकी जलधाराओंकी वर्षा लाते हो, (जीरदानू) हे वेगशाली शक्तिसे युक्त !

आवामश्वास: सुयुजो वहन्तु यतरश्मय: उप यन्त्वर्वाक् ।

घृतस्य निर्णिगनु वर्तते वामुप सिन्धव: प्रदिवि क्षरन्ति ।।

 

हे मित्र और वरुण (वां) तुम दोनोंके (अश्वास:) अश्व (यतरश्मय:) सुनियंत्रित प्रकाशकी लगामोसे (सुयुज:) अच्छी तरह जुते हुए (उप यन्तु अर्वाक् आ वहन्तु) तुम्हें हमारे पास नीचे ले आवें । (घृतस्य निर्णिक्) निर्मलता का स्वरूप (वाम् अनु वर्तते) तुम्हारे आनेपर साथ-साथ आता है, (सिन्धव:) नदियाँ (प्रदिवि) द्युलोकके संमुख (उप क्षरन्ति) बहती है

अनु श्रुताममतिं वर्धदुर्वी बर्हिरिव यजुषा रक्षमाणा ।

नमस्वन्ता नुधृतदक्षाधि गतें मित्रासाथे वरुणेळास्वन्त: ।।

 

(अमति वर्धत्) उस शक्तिको बढ़ाते हुए जो (श्रुताम् अनु) हमारे ज्ञानके श्रवण तक आती है, (यजुषा) यज्ञिय शब्द2 सें (बर्हि: इव उर्वीम् रक्षमाणा) अपने विशाल राज्यकी रक्षा करते हुए2 मानो वह हमारे

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1. एकीभूत गति, जब कि सूर्यका निचला पहिया पृथक, कर दिया जाता हैं :

   निम्नतर सत्य जो उस उच्चतर सत्यकी एकतामें ऊँचा उठा ले जाया

   जाता है ससेजि वह अब अपनी गतिमें पृथक् हुआ प्रतीत होता है ।

2. यजुः । ऋक् वह शब्द है जो अपने साथ प्रकाश लाता है, यजुः वह शब्द

   है जो ऋक्के अनुसार यज्ञिय कर्मका पथप्रदर्शन करता है ।

3. अथवा ''विशाल शक्तिका संवर्धन और रक्षण करते हुए'' ।

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सत्य और आनंदके सहस्र-स्तंभ धामके अधिपति

 

यज्ञका आसन हो, (नमस्वन्ता) नमनको लाते हुए, (धृतदक्षा) विवेकपर दृढ़ रहते हुए, (मित्र) हे मित्र ! (अधिगर्ते आसाथे) तुम अपना स्थान अपने घरमें ग्रहण करते हो । (वरुण) हे वरुण ! (इळासु अन्त:) ज्ञानके साक्षात्कारोंमें तुम भी (आसाथे) अपना स्थान ग्रहण करते हो ।

अक्रविहस्ता सुकृते परस्पा यं त्रासाथे वरुणेळास्वन्त: ।

राजाना क्षत्रमहृस्थूणं बिभृथ: सह द्वौ ।।

 

(वरुणा) हे मित्र और वरुण ! तुम (अक्रवि-हस्ता) ऐसे हाथोंवाले हो जो कुछ बचा नहीं रखते, ऐसे तुम (सुकृते) पूर्ण कार्य करनेवालेके लिए (परस्पा) परात्पर अवस्थाके रक्षक हो, (यं) जिसे तुम (त्रासाथे) मुक्त भी करते हो । वह (इळासु अन्त:) ज्ञानके साक्षात्कारोंमें निवास करता है । (अहृणीयमाना राजाना) आवेगोंसे मुक्त राजाओ ! (द्वौ) तुम दोनों (सह) मिलकर (सहस्रस्थूणम) सहस्र स्तंभोंवाले (क्षत्रम्) बलको (बिभृथ:) धारण करते हो ।

हिरण्यनिर्णिगयो अस्य स्थूणा वि भ्राजते दिव्यश्वाजनीव ।

भद्रे क्षेत्रे निमिता तिल्विले वा सनेम मध्वो अधिगर्त्यस्य ।।

 

(अस्य हिरण्यनिर्णिक्) इसका रूप स्वर्णमय प्रकाशका है, (अस्य स्थुणामय अय:) इसका स्तंभ लोहमय है, वह (दिवि वि भ्राजते) द्युलोकमें ऐसे चमकता है (अश्वाजनी-इव) मानो वह वेगयुक्त बिजली1  हो । वह (भद्रे क्षेत्रे) सुखद क्षेत्र2में (तिल्विले वा) या प्रकाशके क्षेत्र3 में (निंमिता) गढ़ा हुआ है । (मध्व: सनेम) हम उस स्वादु मधु4 'को अधिकृत कर सकें (अधिगर्त्यस्य) जो उस घरमें विद्यमान है ।

हिरण्यरूपमुषसो व्युष्टावय:स्थूणमुदिता सूर्यस्य ।

आ रोहथो वरुण मित्र गर्तमतश्चक्षाथे अrदितिं दितिं च ।।

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1. अथवां, 'घोड़ीं', प्राणरूपी अश्वकी शक्ति ।

2. आनन्द, आनन्दमय लोक ।

3. उषाओंकी चमकका क्षेत्र, प्रकाशका लोक ।

4. सोम ।

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(वरुण मित्र) हे वरुण ! हे मित्र ! (उषस: व्युष्टौ) उषाके फूटने पर, (सूर्यस्य उदिता) सूर्यके उदयकालमें (गर्तम् आ रोहथ:) तुम उस घरकी ओर आरोहण करते हो (हिरण्य-रूपम्) जिसका स्वरूप स्वर्णमय है, (अय:- स्थूणम्) जिसके स्तंभ लोहमय हैं और (अतः) वहाँसे तुम (दितिम् अदितिं च) सान्त और अनन्त सत्ता1 पर (चक्षाथे) दृष्टिपात करते हो ।

यद् बंहिष्ठं नातिविधे सुदानू अच्छिद्रं शर्म भुवनस्य गोपा ।

तेन नो मित्रावरुणावविष्टं सिषासंतो जिगीवांस: स्याम ।।

 

(भुवनस्य गोपा) हे विश्वके शक्तिशाली रक्षक ! (शर्म) तुम्हारा वह आनंद (यत्) जो (बंहिष्ठम्) अत्यधिक विशाल और पूर्ण है और (अच्छिद्रम्) छिद्ररहित है, उसे कोई भी (सुदानू न अतिविधे) भेदकर पार नहीं कर सकता । (तेन नः अविष्टम्) उस आनंदसे तुम हमें पोषित करो, (मित्रावरुणौ) हे मित्र, हे वरुण । (सिषासंत:) हम जो उस शांतिको अधिकृत करना चाहते हैं (जिगीवांस: स्याम) विजयी हों ।

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 1. अदिति और दिति ।

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